नलिन कान्त शारदा
तितली बल शाली (पल्लवी बिटिया के लिए, २०१०)मैं तितली थी भोली भाली
बगियन उड़ती डाली डाली | भवरें करते गुंजन गुंजन सब करते ताली ताली || मैं तितली थी भोली भाली बगियन उड़ती डाली डाली || घोर अँधेरा दिन में हुआ तूफां ने मुझ को आ घेरा | पंख हुए मेरे चूर चूर जीवन था फिर खाली खाली || मैं तितली थी भोली भाली बगियन बैठी डाली डाली || अंतरमन से आवाज़ उठी तेरी मंजिल है अभी दूर कहीं | कर ध्यान ॐ का धूमी रमा मैं उठी धरा से ज्यों काली || मैं तितली थी भोली भाली बगिया छोड़ी, छोड़ा माली || मंजिल को पाने निकल पड़ी तूफान को ढाने निकल पड़ी | आये जो राहों में रोड़े उन्हें यार बना मंजिल पाली || मैं तितली हूँ, पर बल शाली जग मैं चह्कूं डाली डाली || |
Titli Bal Shali (For my daughter Pallavi)Main titli thi bholi bhali
Bagiyan Udti daali daali Bhavren karte gunjan gunjan Sab karte taali taali Main titli thi bholi bhali Bagiyan Udti daali daali Ghor andhera din main hua Toofan nay mujh ko aa ghera Pankh hue mere choor choor Jeevan tha phir khali khali Main titli thi bholi bhali Bagiyan baithi daali daali Antarman se aavaaz uthi Teri manzil hai abhi door kahin Kar dhyaan Om ka dhumi rama Main uthi dhara say jyon Kaali Main titli thi bholi bhali Bagiya schordi, schorda maali Manzil ko paane nikal padi Toofan ko dhane nikal padi Aaye jo rahon main rorde Unhain yaar bana manzil paali Main titli hon, par bal shaali Jag main chakoon daali daali. |
कविता क्यों लिखते हो: March 2012
एक मित्र ने पूच्छा हम से, कविता क्यों लिखते हो |
कविता से है लाभ क्या, शब्दों पे क्यों बिकते हो ||
हमने सोचा, बहुत विचारा, धुमि रमाई, तो चढ़ गया पारा |
पोथी खोली, ग्रन्थ टटोले, पूछा उनसे, तो काका बोले:
कविता के शब्दों मैं, ऐसी है कुछ जान, जीवन की कठिनाइयां, होवें अंतर्ध्यान |
बॉस से हो झगडा, या बीवी की हो मार, मलहम से लगें है, जो शब्द लिखो तुम चार |
शब्द लिखो तुम चार, चार को आठ बनाओ, तो इकले बैठे, बिन पिए मस्ती में आओ ||
सुन ये प्रश्न प्रकट हुए महांकवी भरतवयास, कलिष्ठ प्रश्न के उत्तर का था, उनका ये प्रयास |
ये कौन, ये कौन प्रश्नाकार है, किस बंधू की सबुधि का, ये विचार है |
ये कौन, ये कौन प्रश्नाकार है ||
मन मैं उठे सब भावों को प्रष्ट पे उतार लो, हर शब्द जैसे मोती है उसे निहार लो |
शब्दों से छंद बनते हैं उन्हे उभर लो | हर कवी छंदों का चित्रकार है ||
ये कौन, ये कौन चित्रकार है||
करुणा से भर आया मन, जब नीरज जी ने सुनी व्यथा |
कवी ह्रदय कंम्पित हुआ, निकली मन से ये कथा |
गीत चुभे शूल से, छंद हैं बबूल से | शब्द ये सभी व्यर्थ, कवी हुए हम भूल से |
करुणा ह्रदय के जाप की थाप ढून्ढ ते रहे | वक्त गुज़र गया, अपना आप ढून्ढ ते रहे ||
जब कभी काली अँधेरी बदली मन मैं छाई, भवानी प्रसाद मिश्र ने तब प्रेरणा ये दिलाई |
मैं गीत फरोश न हुआ, कविता में रूचि जगाई |
जी हाँ में अब कविता लिखता हूँ, में तरहां तरहां की कविता लिखता हूँ |
मैं कई किस्म की कविता लिखता हूँ, जब मन में कोई तूफ़ान आता है, न जाने क्यों, वो कविता बन जाता है |
जब मन उल्लास की कह्कही लगता है, मेरा हाथ कलम उठाता है, चलता है |
मन की झंकार से, स्याही की लकीरों को शब्दों में पिरो जाता है, सजाता है |
जी हाँ मैं कविता लिखता हूँ, क्यों लिखता हूँ, कब लिखता हूँ,
क्या पाता हूँ, क्या खोता हूँ, यह में आज तक समझ नहीं पाया,
फिर भी में लिखता ही आया ||
कविता से है लाभ क्या, शब्दों पे क्यों बिकते हो ||
हमने सोचा, बहुत विचारा, धुमि रमाई, तो चढ़ गया पारा |
पोथी खोली, ग्रन्थ टटोले, पूछा उनसे, तो काका बोले:
कविता के शब्दों मैं, ऐसी है कुछ जान, जीवन की कठिनाइयां, होवें अंतर्ध्यान |
बॉस से हो झगडा, या बीवी की हो मार, मलहम से लगें है, जो शब्द लिखो तुम चार |
शब्द लिखो तुम चार, चार को आठ बनाओ, तो इकले बैठे, बिन पिए मस्ती में आओ ||
सुन ये प्रश्न प्रकट हुए महांकवी भरतवयास, कलिष्ठ प्रश्न के उत्तर का था, उनका ये प्रयास |
ये कौन, ये कौन प्रश्नाकार है, किस बंधू की सबुधि का, ये विचार है |
ये कौन, ये कौन प्रश्नाकार है ||
मन मैं उठे सब भावों को प्रष्ट पे उतार लो, हर शब्द जैसे मोती है उसे निहार लो |
शब्दों से छंद बनते हैं उन्हे उभर लो | हर कवी छंदों का चित्रकार है ||
ये कौन, ये कौन चित्रकार है||
करुणा से भर आया मन, जब नीरज जी ने सुनी व्यथा |
कवी ह्रदय कंम्पित हुआ, निकली मन से ये कथा |
गीत चुभे शूल से, छंद हैं बबूल से | शब्द ये सभी व्यर्थ, कवी हुए हम भूल से |
करुणा ह्रदय के जाप की थाप ढून्ढ ते रहे | वक्त गुज़र गया, अपना आप ढून्ढ ते रहे ||
जब कभी काली अँधेरी बदली मन मैं छाई, भवानी प्रसाद मिश्र ने तब प्रेरणा ये दिलाई |
मैं गीत फरोश न हुआ, कविता में रूचि जगाई |
जी हाँ में अब कविता लिखता हूँ, में तरहां तरहां की कविता लिखता हूँ |
मैं कई किस्म की कविता लिखता हूँ, जब मन में कोई तूफ़ान आता है, न जाने क्यों, वो कविता बन जाता है |
जब मन उल्लास की कह्कही लगता है, मेरा हाथ कलम उठाता है, चलता है |
मन की झंकार से, स्याही की लकीरों को शब्दों में पिरो जाता है, सजाता है |
जी हाँ मैं कविता लिखता हूँ, क्यों लिखता हूँ, कब लिखता हूँ,
क्या पाता हूँ, क्या खोता हूँ, यह में आज तक समझ नहीं पाया,
फिर भी में लिखता ही आया ||